रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी
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Thursday, 6 August 2015

मानसूनी बारिश के, क्या हसीन नज़ारे हैं

मानसूनी बारिश के, क्या हसीं नज़ारे हैं।
रंग सारे धरती पर, इन्द्र ने उतारे हैं। 

छा गया है बागों में, सुर्ख रंग कलियों पर
तितलियों के भँवरों से, हो रहे इशारे हैं। 

सौंधी-सौंधी माटी में, रंग है उमंगों का
तर हुए किसानों के, खेत-खेत प्यारे हैं।

मेघों ने बिछाया है, श्याम रंग का आँचल
रात हर अमावस है, सो गए सितारे हैं।

सब्ज़ रंगी सावन ने, सींच दिया है जीवन
बूँद-बूँद बारिश ने, मन-चमन सँवारे हैं।

भर दिये हैं रिमझिम ने, प्रेम रंग जन-जन में
मन को बहलाने के, ये सुखद सहारे हैं।

भाव रंग बरखा के, गा रहे सुमंगल गीत
धार-धार अमृत से, तृप्त स्रोत सारे हैं।

ज्यों बदलते मौसम हैं, रंग भी बदल जाते
कल्पना जुड़े इनसे, शुभ दिवस हमारे हैं।

-कल्पना रामानी  

Saturday, 13 June 2015

बोल उठा भू का तन प्यासा

चित्र से काव्य तक
बोल उठा भू का तन प्यासा
घन बरसो, जग-जीवन प्यासा

आस लगी इस मानसून पर
रह जाए न कृषक-मन प्यासा

कब से नभ को ताक रहा है
कर तरणी धर, बचपन प्यासा

किलकेंगे प्यारे गुल कितने
अगर न हो कोई गुलशन प्यासा

मंगल वर्षा हो यदि वन में
तरसे क्यों जीवांगन प्यासा

पिहू, कुहू औ मोर चकोरी
का अब तक है नर्तन प्यासा

तैरा करते धनिक साल भर
रह जाता तन-निर्धन प्यासा

जाता है हर मौसम में क्यों  
या अषाढ़ या सावन प्यासा

चाह कल्पना सुनो बादलों  
अब की रहे कोई जीव, न प्यासा 

-कल्पना रामानी 

Sunday, 4 August 2013

बुला रही फुहार है


















बदलती ऋतु की रागिनी, सुना रही फुहार है।
उड़ी सुगंध बाग में, बुला रही फुहार है।
 
कहीं घटा घनी-घनी, कहीं पे धूप है खिली
लुका-छुपी के खेल से, रिझा रही फुहार है।
 
अमा है चाँद रात भी, है साँवली प्रभात भी
अनूप रूप सृष्टि का, दिखा रही फुहार है।
 
वनों में पेड़-पेड़ पर, पखेरुओं को  छेड़कर
बुलंद छंद कान में, सुना रही फुहार है।
 
चमन के पात-पात पर, कली-कली के गात पर
बिसात बूँद-बूँद से, बिछा रही फुहार है।
  
पहाड़ पर कछार में, नदी-नदीश धार में
जहाँ-तहाँ बहार में, नहा रही फुहार है।
 
सहर्ष होगी बोवनी, भरेगी गोद भूमि की
किसान संग-संग हल, चला रही फुहार है।
 
मयूर नृत्य में मगन, कुहुक रही है कोकिला
सुरों में सुर मिलाके गीत, गा रही फुहार है।
 
झुला रही है शाख पे, सहेलियों को झूलना
घरों में पर्व प्यार से, मना रही हैं फुहार है।

-कल्पना रामानी  

Saturday, 13 July 2013

गगन में छाए हैं बादल


गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं में चल के देखते हैं।
 
सुदूर गोद में वादी की, गुल परी उतरी
प्रियम! हो साथ तुम्हारा, तो चल के देखते हैं।
 
उतर के आई है आँगन, बरात बूँदों की
बुला रहा है लड़कपन, मचल के देखते हैं।
 
अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा
मिला है क्या, जो पतंगे यूँ जल के देखते हैं।
 
नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना
फरेबी आज वे नज़रें, बदल के देखते हैं।
 
चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी
अभी कुछ और करिश्में, ग़ज़ल के देखते हैं।
 
विगत को भूल ही जाएँ, तो कल्पनाअच्छा
सुखी वही जो सहारे, नवल के देखते हैं।

-कल्पना रामानी


Tuesday, 2 July 2013

बरसात का ये मौसम,कितना हसीन है!


















बरसात का ये मौसम, कितना हसीन है!
धरती गगन का संगम, कितना हसीन है!
 
जाती नज़र जहाँ तक, बौछार की बहार
बूँदों का नृत्य छम-छम, कितना हसीन है!
 
बच्चों के हाथ में हैं, कागज़ की किश्तियाँ
फिर भीगने का ये क्रम, कितना हसीन है!
 
विहगों की रागिनी है, कोयल की कूक भी
उपवन का रूप अनुपम, कितना हसीन है!
 
झूलों पे पींग भरतीं, इठलातीं तरुणियाँ
रस-रूप का समागम, कितना हसीन है!
 
मित्रों का साथ हो तो, आनंद दो गुना
नगमें सुनाता आलम, कितना हसीन है!
 
हर मन का मैल मेटे, सुखदाई मानसून
हर मन का नेक हमदम, कितना हसीन है!


-कल्पना रामानी

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