रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी
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Monday, 11 April 2016

धरती रोती है

पीर ढो रही पल-पल, धरती रोती है।
नीर खो रही जल-जल, धरती रोती है।

डेरा डाले, ठाठ-बाठ से, बागों में
हँसते हैं जब मरु-थल, धरती रोती है।

भरी बोतलों को, जब सूने नैन उठा
तकते हैं घट निर्जल, धरती रोती है।     

जाने कब फिर गले मिलें, पर्वत-झरने    
सोच-सोच कर बेकल, धरती रोती है।  

पूछा करते, सून पोखरों से जब वे
कहाँ जाएँ हम शतदल, धरती रोती है।

जब-जब नज़र आता उसको सावन में भी  
अपना निचुड़ा आँचल, धरती रोती है।  

सोच-सोच है चिंतातुर, कैसे सँवरे  
नई पौध का अब कल, धरती रोती है।  

लौट आए मुस्कान उसकी, यदि सब ढूँढें   
अब भी कल्पना कुछ हल, धरती रोती है।  

-कल्पना रामानी 

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