रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

मेरे बारे में
कल्पना रामानी
Showing posts with label हम सेवा मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए. Show all posts
Showing posts with label हम सेवा मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए. Show all posts

Thursday, 30 October 2014

हम सेवा मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए


हम सेवा-मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए।
अपने ही घर के द्वार के दरबान बन गए।
 
पूँजी लुटा दी प्यार में, कल तक जुटाई जो,
कोने में अब पड़े हुए सामान बन गए।
 
बरगद थे छाँव वाले कि वे आँधियाँ चलीं
छोड़ा जड़ों ने साथ यों, बेजान बन गए।
 
सोचा तो था कि दोस्त सभी होंगे आस-पास
पर जानते थे जो, वे भी अंजान बन गए।
 
होके पराया चल दिया, अपना ही साया भी,
तन्हाइयों में घुल चुकी, पहचान बन गए।    
 
मझधार से तो जूझके आए थे हम मगर,
सीने को तान, तीर पे तूफान बन गए।
 
मन में तो है सवाल ये भी कल्पना अहम
हम जानते हुए भी क्यों, नादान बन गए।

--कल्पना रामानी

समर्थक

सम्मान पत्र

सम्मान पत्र