पतझड़ आया, पेड़ों से अब दूर चले पत्ते।
कल तक थे ये हरियाले अब पीत हुए पत्ते।
शुष्क हवाओं के थप्पड़ से,छूट गई डाली।
आश्रय छूटा ठौर नया अब ढूँढ रहे पत्ते।
कौन सहारा दे उनको, सब मार रहे ठोकर।
उड़ उड़ कर कोने कोने में जा पहुँचे पत्ते। रौंदा, फेंका और जलाया, लोगों ने इनको।
स्वार्थ मनुष का देख हुए हैरान बड़े पत्ते।
चुप हैं, शायद जान गए हैं, जाना है सबको।
फिर झूमेंगे, पेड़ों पर, नव रूप लिए पत्ते।
---कल्पना रामानी