रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी
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Wednesday, 14 May 2014

छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब


छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।
 
माँ तो होती है सभी की, जो जगत के जीव हैं
मातृ सुख किसको मिलेगा, ये मगर लिखता नसीब।
 
कर दे राजा को भिखारी और राजा रंक को
अर्श से भी फर्श पर, लाकर बिठा देता नसीब।
 
बिन बहाए स्वेद पा लेता है कोई चंद्रमा
तो कभी मेहनत को भी होता नहीं दाना नसीब।

लाख धोखे छल-कपट से, ले डकार औरों के हक़
पर टिकेगा ढिंग तेरे, जो लिख चुका तेरा नसीब।  
 
दोष हो जाते बरी, निर्दोष बन जाते सज़ा
छटपटाते मीन बन, जिनका हुआ काला नसीब।
 
दीप जल सबके लिए, पाता है केवल कालिमा,
पर जलाते जो उसे, पाते उजालों का नसीब।
 
कल्पना फिर द्वेष कैसा, दूसरों के भाग्य से,
क्यों न शुभ कर्मों से लिक्खें, हम स्वयं अपना नसीब।

------कल्पना रामानी

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