देखकर सपने छलावों से भरे बाज़ार में।
लुट रही जनता दलालों से भरे बाज़ार में।
चील बन महँगाई ले जाती झपट्टा मारकर,
जो कमाते लोग, चीलों से भरे बाज़ार में।
लॉटरी, सट्टा, जुआ, शेयर सभी परवान पर,
बढ़ रही लालच, भुलावों से भरे बाज़ार में।
खल, कुटिल, काले मुखौटों की सफेदी देखकर,
जन ठगे जाते, नकाबों से भरे बाज़ार में।
जोंक से चिपके हुए हैं तख्त से रक्षक सभी,
दे सुरक्षा कौन, जोंकों से भरे बाज़ार में।
हारते सर्वस्व फिर भी नित्य लगती बोलियाँ,
दाँव है जीवन, बिसातों से भरे बाज़ार में।
------कल्पना रामानी
8 comments:
बाजारवाद के यथार्थ को बयान करती सुन्दर गजल।
बाजारवाद के यथार्थ को बयान करती सुन्दर गजल।
बहुत खूब !
बहुत सुन्दर...वाह
बहुत सुन्दर...वाह
कटु यथार्थ को बयान करती सशक्त प्रस्तुति ! शुभकामनायें !
waahh ...sundar prastuti :)
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