रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी
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Tuesday, 24 February 2015

गुल खिले बसंती

घटे शीत के भाव-ताव, दिन बने बसंती
गुलशन हुए निहाल, और गुल खिले बसंती

पेड़-पेड़ ने पूर्ण पुराने वस्त्र त्यागकर
फिर से हो तैयार, गात पर धरे बसंती

अमराई में जा पहुँची पट खोल कोकिला
जी भर चूसे आम, मधुर रस भरे बसंती

पीत-सुनहरी सरसों ने भी खूब सजाए    
खेत-खेत में खिले-खिले, सिलसिले बसंती 

फुलवारी की  गोद भरी नन्हें मुन्नों से   
किलकारी के बोल, हवा में घुले बसंती

कलिकाओं की सरस रागिनी, सुनकर सुर में  
भँवरों ने दी ताल, तराने छिड़े बसंती

जन-जन से मन जोड़ मिला, कंचन-कुसुमाकर
उगी सुहानी भोर, उमंगें लिए बसंती

कवियों की भी रही न पीछे कलम “कल्पना”
गज़लों ने भी शेर, खूब कह दिये बसंती

-कल्पना रामानी  

Saturday, 15 February 2014

फिर बसंत का हुआ आगमन


बदला मौसम, फिर बसंत का, हुआ आगमन।
खिला खुशनुमा, फूल-तितलियों, वाला उपवन।
 
कुदरत के नव-रंग देखकर, प्रेम अगन में
हुआ पतंगों का भी जलने को आतुर मन।
 
पींगें भरने, लगे प्रेम की, भँवरे कलियाँ
लहराता लख, हरित पीत वसुधा का दामन।
 
पल-पल झरते, पात चतुर्दिश, बिखरे-बिखरे
रस-सुगंध से, सींच रहे हैं, सारा आँगन।
 
देख जुगनुओं वाली रैना, पर्वत-झरने
खा जाता है मात चाँदनी का भी यौवन।
 
लगता है ज्यों, भू पर उतरी एक अप्सरा
प्रीत-प्रीत बन जाता है यह मदमाता मन। 
 
रूप प्रकृति का बना रहे यह काश! "कल्पना"  
और बीत जाए इनमें, यह सारा जीवन।

-कल्पना रामानी   

Friday, 1 February 2013

बसंत आया है





















डाल डाल पर गुल खिले, बसंत आया है।
पात पात हँसकर कहे, बसंत आया है।

चारु चंद्र की चाँदनी, विहार को उतरी।
स्वर्ग लोक सी भू दिखे, बसंत आया है।

सुर के साथ ठंडी हवा, फिज़ाओं में उमड़ी।
तार तार मन का गुने, बसंत आया है।

बाग बीच भँवरा करे, किलोल कलियों से।
फूल फूल तितली उड़े, बसंत आया है।

कुंज कुंज में कोकिला, खुमार से कुहकी।
आम्र बौर तरु पर लदे, बसंत आया है।

खूब दृष्टि को भा रहा, उफान नदियों का।
धार धार को सुर मिले, बसंत आया है।

स्वर्ण वर्ण सरसों खिली, विशाल खेतों में।
लख किसान हर्षित हुए, बसंत आया है।

नम हवाओं के स्पर्श से, प्रसन्न है वसुधा।
बीज बीज अंकुर उगे, बसंत आया है।

सृष्टि रूप नव से जगी, उमंग जीवन में।
प्रीत-पर्व घर घर मने, बसंत आया है।


-----कल्पना रामानी

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