
मेरी एक छोटी सी भूल की, है ये इल्तिज़ा कि सज़ा न हो।
जो सज़ा भी हो तो मेरे खुदा, मेरा प्यार मुझसे जुदा न हो।
बिना उसके फीके हैं राग सब, न लुभाती कोई भी रागिनी
है अधूरा सुर मेरे गीत का, जहाँ साथ उसका मिला न हो।
वो नहीं अगर मेरे पास तो, कटे तारे गिन मेरी हर निशा
कोई पल गुज़रता नहीं कि जब, उसे याद मैंने किया न हो।
मैं हूँ सोचती बनूँ मानिनी, वो मनाए मुझको बस एक बार
है ये डर मगर कि मेरी तरह, कहीं वो भी ज़िद पे अड़ा न हो।
नहीं गम मुझे मेरे मन को वो, क्यों न आज तक है समझ सका
मेरा मन तो है यही चाहता, कभी मुझसे उसको गिला न हो।
उसे ढूँढते ढली साँझ ये, तो भी आस की है किरण अभी
इन अँधेरों में मुझे थामने, किसी ओट में वो छिपा न हो।
है तमन्ना बस यही “कल्पना”, वो नज़र में हो जियूँ या मरूँ
नहीं मुक्त होगी ये रूह भी, जो उसी के हाथों विदा न हो।
5 comments:
Waah khubsurat ..
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
बहुत खूबसूरत गज़ल।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
अनु
आ0 कल्पना दी इस खूबसूरत गजल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ।
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