
है
ज़िंदगी का फलसफ़ा, ज़रा सा मुस्कुराइये
बनेगा
दर्द भी दवा, ज़रा सा मुस्कुराइये
विगत
को क्यों गले लगा, बिसूरते हैं रात दिन
बिसार
के जो हो चुका, ज़रा सा मुस्कुराइये
न
कोई श्रम न दाम है, ये मुफ्त का इनाम है
जो
रहना चाहें चिर युवा, ज़रा सा मुस्कुराइये
भुलाके
रब की रहमतें, क्यों झेलते हैं ज़हमतें
रहम
की माँगकर दुआ, ज़रा सा मुस्कुराइये
हिलाएँगे
जो होंठ तो, खिलेगा चेहरा भोर सा
कटेगा
दिन हरा-भरा, ज़रा सा मुस्कुराइये
विकल्प
तो अनेक हैं, अगर खुशी अज़ीज़ हो
तो
मान लें मेरा कहा, ज़रा सा मुस्कुराइये
जो ज़िंदगी के शेष दिन, जिएँगे हँस के “कल्पना”
ये
करके खुद से वायदा, ज़रा सा मुस्कुराइये
-कल्पना रामानी
2 comments:
आपकी रचना दिल को भा जाती है ।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है आदरणीया बधाई।
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