सेवा
हमपर मुग्ध हुई, हम सेवामुक्त हुए
सुर्खी
में थे कल तक, अब तो प्राणी लुप्त हुए
हाथ
खिलाते थे जिनको, वे हाथ खिलाते हैं
कैसा
यह अभियोग लगा, जो घर-अभियुक्त हुए
पालित
थे, वे पालक हैं अब, कैसी हवा चली
बँधे
हुए खूँटे से खा-पी,
मौजी-मस्त हुए
वैद्य
बने बैठे हैं घर के, छोटे-बड़े सभी
सौ
हिदायतें, स्वास्थ्य शुद्धि के, नुस्खे मुफ्त हुए
क्या
मज़ाल पग उठ चलने की, कर बैठें गलती
चाल-चहलकदमी
पर भी अब, पहरे सख्त हुए
यों
तो रोज़ बुलाती थी वो, बैठक की कुर्सी
धकियाते
थे जिसे, उसीसे, चिपके लस्त हुए
खान-पान, जल-स्नान ‘कल्पना’ सब घर की मर्ज़ी
हम
न रहे हम, या रब ऐसे, क्यों अभिशप्त हुए
-कल्पना रामानी
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