
जतन
किए बिन, सोच रहे जन, कब आएँगे अच्छे दिन
पैराशूट
पहन क्या नभ से, कूद पड़ेंगे अच्छे दिन?
जब
तक हैं ये सुनो बंधुवर,
बँधे खास के खूँटे से
आम
जनों से भला किस तरह आन जुड़ेंगे अच्छे दिन
कलमें
घिस-घिस थके नहीं क्या?
हक़ पाने हथियार बनो
हाथ
जोड़ सिर झुका बात तत्काल सुनेंगे अच्छे दिन
हल
न हिलें, ना बैल बढ़ें, हों खेत खड़े बिन पानी-खाद
बस
ज़ुबान भर चलने से क्या उग आएँगे अच्छे दिन?
खुद
ही किया पलायन घर से, गाँव-गंध-माटी को छोड़
खुद
से नज़र मिला पूछो अब, कब लौटेंगे अच्छे दिन
कर्म पूजना छोड़ चले हैं, धर्म पूजने मंदिर आप
फूल
चढ़ा देने से ही क्या प्रगट भएँगे अच्छे दिन?
जो
गृह-नीति न सुलझा पाते,
राजनीति की करते बात
कुछ
दिन काबिज़ हों,
हाल उनका, तब पूछेंगे अच्छे दिन
सोने
वाले सावधान हो! करता रहा इशारा काल
जागेंगे
जब आप! ‘कल्पना’ तब आएँगे अच्छे दिन
-कल्पना रामानी
1 comment:
अद्भुत लेखन है दीदी आपका
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