रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी
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Saturday, 9 July 2016

ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं

ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं
बिक रहे चहुं ओर केवल खार हैं

पिस रही कदमों तले इंसानियत
शीर्ष सजते पाशविक व्यवहार हैं

वक्र रेखाओं से हैं सहमी सरल
उलझनों में ज्यामितिक आकार हैं   

हों भ्रमित ना, देखकर आकाश को
भूमि पर दम तोड़ते आधार हैं     

क्या वे सब हकदार हैं सम्मान के
कंठ में जिनके पड़े गुल हार हैं?

बाँध लें पुल प्रेम का उनके लिए   
जो खड़े नफ़रत लिए उस पार हैं

उन जड़ों पर बेअसर हैं विष सभी
सींचते जिनको अमिय-संस्कार हैं

ज़िंदगी को अर्थ दें, इस जन्म में
कल्पना केवल मिले दिन चार हैं 

- कल्पना रामानी

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