समय हमें क्या दिखा रहा है।
कहाँ ज़माना ये जा रहा है।
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है।
जो जग की खातिर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा ही खाली घड़ा रहा है।
खफा हैं क्यों काफिये बहर से,
गज़ल को ये गम सता रहा है।
ये “कल्पना” रब का न्याय कैसा,
दुखों का ही दिल दुखा रहा है।
------कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुन्दर
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