रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Wednesday, 12 February 2014

नीड़ का निर्माण फिर फिर टल रहा है
















बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।
घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।
 
डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,
नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।
 
हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,
शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।
 
सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,
दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।
 
क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,
जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।
 
देखिये इस बात पर कुछ गौर करके,
आज से बेहतर हमारा कल रहा है।  
 
मन को जिसने आज तक शीतल रखा था,
सब्र का घन धीरे-धीरे गल रहा है।
 
ख्वाब है जनतन्त्र का अब तक अधूरा,

आदि से जो इन दृगों में पल रहा है।   

-----कल्पना रामानी

7 comments:

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर.

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत सुन्दर
new post बनो धरती का हमराज !

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' said...

प्रकृति की रक्षा सबसे पहले हो. सुंदर रचना.

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जबसे ...। बहुत सटीक ...।

virendra sharma said...

पंख लगा दिए हैं इस रचना ने अभिव्यक्ति को ,सचमुच -

नीड़ का निर्माण फिर न हो सकेगा। .....

Maheshwari kaneri said...

वाह ... बहुत सुंदर

Maheshwari kaneri said...

वाह ... बहुत सुंदर

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