रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Wednesday, 22 July 2015

जिनके मन में सच की सरिता बहती है

जिनके मन में सच की सरिता बहती है
उनकी कुदरत भी होती हमजोली है

जब-जब बढ़ते लोभ, पाप, संत्रास, तमस
तब-तब कविता मुखरित होकर बोली है

शब्द, इबारत, कागज़ चाहे चुराए कोई
गुण, भावों की होती कभी न चोरी है

होते वे ही जलील जहाँ के तानों से
बेच ज़मीर जिन्होंने वाह बटोरी है

खोदें खल बुनियाद लाख अच्छाई की
इस ज़मीन में बंधु! बहुत बल बाकी है  

बनी कौन सी सुई? सिये जो सच के होंठ
किए जिन्होंने जतन, मात ही खाई है

पानी मरता देख कुटिल बेशर्मों का
माँ धरती भी हुई शर्म से पानी है

कलम कल्पना है निर्दोष रसित जिसकी
रचना उसकी खुद विज्ञापन होती है

-कल्पना रामानी  

3 comments:

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (24.07.2015) को "मगर आँखें बोलती हैं"(चर्चा अंक-2046) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

Asha Joglekar said...

बनी कौन सी सुई? सिये जो सच के होंठ
किए जिन्होंने जतन, मात ही खाई है

वाह,वाह।

रश्मि शर्मा said...

बहुत बढ़ि‍या

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