जिनके
मन में सच की सरिता बहती है
उनकी
कुदरत भी होती हमजोली है
जब-जब
बढ़ते लोभ, पाप, संत्रास, तमस
तब-तब
कविता मुखरित होकर बोली है
शब्द, इबारत, कागज़ चाहे चुराए कोई
गुण, भावों की
होती कभी न चोरी है
होते
वे ही जलील जहाँ के तानों से
बेच
ज़मीर जिन्होंने ‘वाह’ बटोरी है
खोदें
खल बुनियाद लाख अच्छाई की
इस
ज़मीन में बंधु! बहुत बल बाकी है
बनी
कौन सी सुई? सिये जो सच के होंठ
किए
जिन्होंने जतन, मात ही खाई है
पानी
मरता देख कुटिल बेशर्मों का
माँ
धरती भी हुई शर्म से पानी है
कलम
‘कल्पना’ है निर्दोष रसित जिसकी
रचना
उसकी खुद विज्ञापन होती है
-कल्पना रामानी
3 comments:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (24.07.2015) को "मगर आँखें बोलती हैं"(चर्चा अंक-2046) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
बनी कौन सी सुई? सिये जो सच के होंठ
किए जिन्होंने जतन, मात ही खाई है
वाह,वाह।
बहुत बढ़िया
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