रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Tuesday, 15 April 2014

किसे सुनाएँ व्यथा वतन की

चित्र से काव्य तक

किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।
है कौन बातें करे अमन की।
 
हुई हुकूमत हितों पे हावी
हताश है, हर गुहार जन की।
 
फिसल रहे पग हरेक मग पर
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।
 
फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर
कदम तले बातें सत वचन की।
 
निगल के खुशबू को नागफनियाँ
कुचल रहीं आरज़ू चमन की।
 
ये किसके बुत क्यों बनाके रावण
निभा रहे हैं प्रथा दहन की।
 
ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं चर्चे
विमूढ़ चर्चा करें गगन की।
 
न जाने कब होगी “कल्पना” फिर
नवेली प्रातः नई किरन की।

- कल्पना रामानी


3 comments:

God Blessing said...

एक महान कवयित्री की महान गज़ल जो वास्तविकता पर आधारित है । कल्पना रामानी के सफलतम प्रयास के लिये धन्यवाद , बधाई और शुभ कामनायें । मैं इनकी दीर्घायु , स्वस्थ जीवन और उज्ज्वल भविष्य प्रदान करनें की हृदय की गहराइयों से प्रार्थना करता हूँ । जीवन मंगलमय और आनन्द दायक हो ॥

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और प्रभावी प्रस्तुति...

संजय भास्‍कर said...

प्रभावी प्रस्तुति...

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