गंध-माटी
में बसी, माँ भारती की शान है।
गर्व-गौरव
सिंधु हिन्दी, देश की पहचान है।
भाव, रस,
छंदों से है, परिपूर्ण हिन्दी का सदन
जिसपे
भारतवासियों को सर्वदा अभिमान है।
थामती
ये हाथ हर भाषा का है कितनी उदार!
मान
हिन्दी का किया जिसने, लिया सम्मान है।
गैर
आए, बैर आए, टिक न पाए पैर पर
मात
खा हर घात ने, वापस किया प्रस्थान है।
छद्म-छल
क़ाबिज़ हुए, जड़ खोदने को बार-बार
पर
मिटे हिन्दी की हस्ती, यह नहीं आसान है।
बेल
अमर हिन्दी की ये,
बढ़ती रहेगी युग-युगों
कंटकों
को काट जो, चढ़ती रही परवान है।
चाहती
साहित्य-सरिता, हक़ से अपना पूर्ण हक़
हर
दिशा में ज्यों बहे, हिन्दी का ये अरमान है।
गौण
हैं अपने वतन में, किसलिए हिन्दी के गुण?
जबकि
इसका विश्व सारा, कर रहा गुणगान है।
जागते
रहना है ज्यों मुरझा न जाए फिर चमन
‘कल्पना’ हिन्दी से ही गुलज़ार हिंदुस्तान है।
-कल्पना रामानी
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