हवाओं का पैगाम पाकर फिज़ा से
लगे आसमां में पतंगों के मेले।
हुई रवि की संक्रांति ज्योंही मकर में
विजित शीत ने अपने सामां समेटे।
उड़ा जा रहा मन परिंदों की तरहा
कि मुट्ठी में डोरी उमंगों की थामे।
बढ़े दिन, खिली धूप ने कर बढ़ाया
चमन में नए रंग मौसम के बिखरे।
मनाने लगी हर दिशा पर्व पावन
भुलाकर सभी दर्द, गुजरे दिनों के
सखी, भेज अपनों को तिल-गुड़ का न्यौता
चलो ‘कल्पना’ गीत गाएँ शगुन के।
2 comments:
सुंदर मकर संक्रांति के गीत, आपको भी मकर संक्रांति की शुभकामनाएं कल्पना जी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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