सकल
विश्व में फैली चारों ओर जीव हित।
मंगलकारी
मातृ-शक्ति की छाँव अपरिमित।
जब-जब
आती पाप-लोभ की बाढ़ जगत में
नव-दुर्गा
तब प्राण हमारे करती रक्षित।
मनता
जब नवरात्रि-पर्व हर साल देश में
दिव्य
प्रभा से मिट जाता सारा तम दूषित।
घटस्थापना, जगराते, माहौल बनाते
जिसमें
होते सकल दुष्टतम भाव विसर्जित।
चलता
दौर उपवास भजन का जब तक घर-घर
माँ
देवी से माँगे जाते, वर मनवांछित।
देशबंधुओं, नाम देश का पर्वों
से ही
विश्व-फ़लक
पर स्वर्ण अक्षरों में है अंकित।
अमर
रहें ये परम्पराएँ, युगों “कल्पना”
अजर
रहे यह संस्कारों की ज्योत-अखंडित।
-कल्पना रामानी
2 comments:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-10-2016) के चर्चा मंच "मातृ-शक्ति की छाँव" (चर्चा अंक-2490) पर भी होगी!
शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत-बहुत सुन्दर..
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