जब से कर ने गही लेखनी
शीश तान चल पड़ी लेखनी
बिन लाँघे देहरी-दीवारें
दुनिया भर से मिली लेखनी
खूब शिकंजा कसा झूठ ने
मगर न झूठी बनी लेखनी
हारे छल-बल, रगड़ एड़ियाँ
कभी न लेकिन झुकी लेखनी
कभी नहीं सम्मान खरीदे
मान बचाती रही लेखनी
हर मौसम के रंगों में रँग
रही बाँटती खुशी लेखनी
परिचित मुझसे हुआ तभी जग
जब परिचय से जुड़ी लेखनी
जीवन भर अब साथ ‘कल्पना’
चिरजीवी चिरजयी लेखनी
-कल्पना रामानी
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