रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Monday, 17 August 2015

ऋतु स्वतंत्रता की है

फना हुईं गुलामियाँ, ये ऋतु स्वतन्त्रता की है
अमन की बात बोलिए, कि प्रात, वंदना की है

लपेट लोभ, छल-कपट, बिछी हुई हैं गोटियाँ
न पस्त जीत हो कि ये, बिसात, दासता की है  

मिटे जो देश के लिए, शहीद, उनकी याद में  
जलाएँ इक दिया पुनः, ये रात प्रार्थना की है

रहें न वे अपूर्ण अब, स्वतंत्र राजतंत्र में
जो ख्वाब हर सपूत के, जो आस हर सुता की है

भुलाके द्वेष-क्लेश सब, करें नमन निशान को
सुयोग से मिली हमें, ये भू परम्परा की है

सदय बनें, सुदृढ़ बनें, हृदय उतार लें चलो
हवाओं में घुली हुई जो सीख हर ऋचा की है  


करें न अंध अनुकरण, विदेशी रीति-नीति का  
स्वदेश की पुकार ये, गुहार माँ धरा की है    

रुकें न पग प्रयास के, झुके न अब ध्वजा कभी
बनी रहे स्वतन्त्रता, ये चाह कल्पना की है 

-कल्पना रामानी  

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