
दो दिलों के वादों को, वादियाँ समझती हैं।
झूमते चिनारों की, डालियाँ समझती हैं।
सागरों के सीने में, साँझ कब सिमटती है
झाँकते पहाड़ों की, चोटियाँ समझती हैं।
सूर्य जब सताता है, आग बनके धरती को
बूँदें बन बरसना है, बदलियाँ समझती हैं।
सात फेरे फिरते हैं, आजकल हवाओं में
दुल्हनों के ख्वाबों को, डोलियाँ समझती हैं।
पेट कौन भरता है, थालियाँ ये क्या जानें
भूख के इशारों को, रोटियाँ समझती हैं।
देवता जगे कब हैं, घंटियाँ बजाने से
मौन भावनाएँ ही, मूर्तियाँ समझती हैं।
साकी तो पिलाती है, जाम हर शराबी को
होंठ कौन चूमेगा, प्यालियाँ समझती हैं।
शेर की दहाड़ों से, झाड़ियाँ दहलतीं जब
सिर उन्हें छिपाना है, हिरनियाँ समझती हैं।
देखते हैं हसरत से, लोग सारे बगिया को
स्वेद किसने सींचा है, क्यारियाँ समझती हैं।
घूरते गुनाहों से, ‘कल्पना’ डरें वे क्यों
क्या सबक सिखाना है, नारियाँ समझती हैं।
- कल्पना रामानी
4 comments:
बहुत सुन्दर ग़ज़ल ! हर एक अशआर दमदार है |
new post ग्रीष्म ऋतू !
सुंदर रचना
waah ,... har sher ka bhaav or prbhaav gazab ka hai ..Bahut khooh ...Badhai aapko.
साकी तो पिलाती है, जाम हर शराबी को,
होंठ कौन चूमेगा, प्यालियाँ समझती हैं। ..
दिली दाद कबूल करें इस शेर की ... बहुत ही उम्दा ग़ज़ल ... धमाकेदार शेर ...
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