हरी
चदरिया तहा रही कुदरत
सबक
हमें अब सिखा रही कुदरत
विष-बेलें
तो हमने ही बोईं
उनका ही विष पिला रही कुदरत
उँगली-इशारा देख
न पाए हम
अब
उँगली पर नचा रही कुदरत
धूल
बना दी हमने नम माटी
हमें
धूल अब चटा रही कुदरत
हमने
उसका रस निचोड़ डाला
हमें
रसातल दिखा रही कुदरत
हाथ
छुड़ाया उससे मैत्री का
अब
तो छक्के छुड़ा रही कुदरत
हमने
उसके लिए कुआँ खोदा
खाई
में हमें धका रही कुदरत
हमने 'कल्पना' उसे सताया है
अब हमको ही सता रही कुदरत
- कल्पना रामानी
2 comments:
लोहड़ी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (13-04-2015) को "विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस" {चर्चा - 1946} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूबसूरत गज़ल।
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