खुशबू
देते कोमल फूलों जैसे रिश्ते
ना
जाने क्यों आज बन गए काँटे रिश्ते
सहलाते
थे दर्द दिलों का मरहम लाकर
अब
महरूम हुए हाथों से गहरे रिश्ते
खिल
जाते थे नैन चार होते ही जो कल
नैन
मूँद बन जाते अब, अनजाने रिश्ते
बूँद-बूँद
से बरसों में जो हुए समंदर
बाँध
पलों में तोड़ बने बंजारे रिश्ते
हरे
भरे रहते थे भर पतझड़ में भी जो
अब
सावन में भी दिखते हैं सूखे रिश्ते
तकरारों
में पूर्व बनी माँ, पश्चिम बाबा
सुपर
सपूतों ने कुछ ऐसे बाँटे रिश्ते
नादानी
थी या शायद धन-लोभ “कल्पना”
गाँव-गली
से बिछड़ गए जो प्यारे रिश्ते
-कल्पना रामानी
1 comment:
रिश्ते पौधों की तरह सींचने पढ़ते हैं, और ये पौधे एक तरफा सिंचाई से संतुष्ट नहीं होते. बहुत सुंदर वर्णन
आपकी इस उत्कृष्ट रचना का उल्लेख सोमवार (20-04-2015) की चर्चा "चित्र को बनाएं शस्त्र, क्योंकि चोर हैं सहस्त्र" (अ-२ / १९५१, चर्चामंच) पर भी किया गया है.
सूचनार्थ
http://charchamanch.blogspot.com/2015/04/20-1951.html
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