
कंत लौटा फूल बेला के बिना
कामिनी
सँवरी नहीं गजरे बिना
किस
तरह स्वीकार कर ले मानिनी
और
कोई फूल मन भाए बिना
रह
गई माला अधूरी भाव की
गुंथ
न पाई प्रेम के धागे बिना
राह
तकता ही रहा बेला उधर
रात
इधर गुज़री प्रणय-पल के बिना
देख
फीके रंग ऐसे प्यार के
घन
गए घर लौटकर बरसे बिना
चल
पड़ी सुरभित हवा मायूस हो
बाग
वापस ख़ुशबुएँ बाँटे बिना
कंत
बोला मान भी जाओ प्रिये
अब
न आऊँगा कभी बेले बिना
‘कल्पना’ सुन बंद कलियाँ खिल गईं
भोर
का तारा-गगन देखे बिना
-कल्पना रामानी
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