एक नन्हीं प्यारी चिड़िया, आज देखी बाग में।
चोंच से चूज़े को भोजन, कण चुगाती बाग में।
काँप जाती थी वो थर-थर, होती जब आहट कोई
झाड़ियों के झुंड में, खुद को छिपाती बाग में।
ढूँढती दाना कभी, पानी कभी, तिनका कभी
एक तरु पर नीड़ अपना, बुन रही थी बाग में।
खेलते बालक भी थे, हैरान उसको देखकर
आज ही उनको दिखी थी, वो फुदकती बाग में।
नस्ल उसकी देश से अब, लुप्त होती जा रही
बनके रह जाएगी वो, केवल कहानी बाग में।
है नियत उसके लिए अब, एक दिन हर साल का
ढूँढने आएँगे जब, उसकी निशानी बाग में।
जाग रे इंसान, यों खोने न दो इस जीव को
क्या हुआ फिर शोध हों, वो कब दिखी थी बाग में।
- कल्पना रामानी
2 comments:
आपकी एक और शानदार पेशकश । बहुत ख़ूब ।
एक तरु पर नीड़ अपनी " होगा या नीड़ अपना ।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,सदर आभार.
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