बंजर
ज़मीं पे बाग, बसाएँ तो बात है
अँधियारों
को चिराग, दिखाएँ तो बात है
दिल
तोड़ना तो मीत! है आसान आजकल
टूटे
दिलों में प्रीत, जगाएँ तो बात है
रोटी
को कैद करने तो, सौ हाथ उठ रहे
आज़ाद
करने हाथ, बढ़ाएँ तो बात है
रावण
का बुत जलाते हो युग-युग से राम बन
कलियुग
के रावणों को जलाएँ तो बात है
वन-वन
उजाड़कर तो बहुत आप खुश हुए
उजड़े
वनों में प्राण, बसाएँ तो बात है
खाया-कमाया-भोगा, नहीं बात
ये बड़ी
भूखों
को बढ़के भोग, लगाएँ तो बात है
औरों
के दोष लिखती रहे लेखनी तो क्या!
लिक्खे
पे खुद भी चलके दिखाएँ तो बात है
खूबी
से खूब झूठ सजाते हो “कल्पना”
सच
को सजाके सामने आएँ तो बात है
-कल्पना रामानी
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-03-2015) को "नीड़ का निर्माण फिर-फिर..." (चर्चा अंक - 1916) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर और संदेशप्रद गजल के लिये हार्दिक बधाई आ. कल्पना जी।
रावण का बुत जलाते हो युग-युग से राम बन
कलियुग के रावणों को जलाएँ तो बात है
वन-वन उजाड़कर तो बहुत आप खुश हुए
उजड़े वनों में प्राण, बसाएँ तो बात है
बहुत सुन्दर ...
बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
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