बदला मौसम, फिर बसंत का, हुआ आगमन।
खिला खुशनुमा, फूल-तितलियों, वाला उपवन।
कुदरत के नव-रंग देखकर, प्रेम अगन में
हुआ पतंगों का भी जलने को आतुर मन।
पींगें भरने, लगे प्रेम की, भँवरे कलियाँ
लहराता लख, हरित पीत वसुधा का दामन।
पल-पल झरते, पात चतुर्दिश, बिखरे-बिखरे
रस-सुगंध से, सींच रहे हैं, सारा आँगन।
देख जुगनुओं वाली रैना, पर्वत-झरने
खा जाता है मात चाँदनी का भी यौवन।
लगता है ज्यों, भू पर उतरी एक अप्सरा
प्रीत-प्रीत बन जाता है यह मदमाता मन।
रूप प्रकृति का बना रहे यह काश! "कल्पना"
और बीत जाए इनमें, यह सारा जीवन।
-कल्पना रामानी
3 comments:
बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
आपकी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
--
आपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल सोमवार (03-03-2014) को ''एहसास के अनेक रंग'' (चर्चा मंच-1540) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
बहुत सुन्दर शब्द चित्र... ख़ूबसूरत प्रस्तुति..
Post a Comment