दिल की दुनिया पुनः बसाने, आओगे ना!
रूठी हूँ तो मुझे मनाने, आओगे ना!
रंग हुए बदरंग, नज़ारों के हैं
सारे
नव-रंगों के ले नज़राने, आओगे ना!
भूलीं नहीं ये गलियाँ अब तक, वो दीवानगी
इन गलियों में फिर दीवाने, आओगे ना!
छोड़ गईं ख़ुशबुएँ खफा हो मन बगिया को
तुम सुगंध बन, मन महकाने, आओगे ना!
सहमा-सहमा समय खो चुका है गति अपनी
थमे पलों को गतिय बनाने, आओगे ना!
शेर मेरे सुन, रो दोगे तुम, मुझे पता है
जी भर हँसने और हँसाने, आओगे ना!
हक़ न रहा अब करूँ शिकायत तुमसे कोई
पर तुम तो अधिकार जताने, आओगे ना!
भूल ‘कल्पना’ मानी अपनी, मैंने साथी!
एक बार तो सज़ा सुनाने, आओगे ना!
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-08-2016) को "बिखरे मोती" (चर्चा अंक-2425) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
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