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ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं
बिक रहे चहुं ओर केवल खार हैं
पिस रही कदमों तले इंसानियत
शीर्ष सजते पाशविक व्यवहार हैं
वक्र रेखाओं से हैं सहमी सरल
उलझनों में ज्यामितिक आकार हैं
हों भ्रमित ना, देखकर आकाश को
भूमि पर दम तोड़ते आधार हैं
क्या वे सब हकदार हैं सम्मान के
कंठ में जिनके पड़े गुल हार हैं?
बाँध लें पुल प्रेम का उनके लिए
जो खड़े नफ़रत लिए उस पार हैं
उन जड़ों पर बेअसर हैं विष सभी
सींचते जिनको अमिय-संस्कार हैं
ज़िंदगी को अर्थ दें, इस जन्म में
‘कल्पना’ केवल मिले दिन चार हैं - कल्पना रामानी
4 comments:
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 11 जुलाई 2016 को लिंक की गई है............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
bahut sundar
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सुन्दर रचना..
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