रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Sunday, 26 June 2016

प्यारे शिरीष



रंग बिखरे, बाग निखरे, खिल उठे प्यारे शिरीष।
गाँव तक चलकर शहर, सब देखने निकले शिरीष।

खुशनसीबी है कि हैं, परिजन मेरे भी गाँव में
देके न्यौता ग्रीष्म में, मुझको बुला लेते शिरीष। 

ताप का संताप देता, जेठ जब हर जीव को
तब बहा देते चमन में, सुरभि के झरने शिरीष।

डालियाँ नाज़ुक हैं इनकी, पर इरादे वज्र से  
नाजनीनों को झुलाते, झूल बन, भोले शिरीष।

जल जलाशय दें न दें, परवा इन्हें होती नहीं
बल्कि अपने दम पे मौसम, नम बना देते शिरीष।

लख अतुल सौन्दर्य इनका, दौड़ती हर लेखनी
और कविताओं में गुंथते, काव्य के गहने शिरीष।

मन नहीं होता कि वापस, छोड़ इन्हें जाऊँ शहर
कब मिलें फिर कल्पना ये, आज के बिछड़े शिरीष। 

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-06-2016) को "अपना भारत देश-चमचे वफादार नहीं होते" (चर्चा अंक-2385) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

दिगम्बर नासवा said...
This comment has been removed by the author.
दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है ... लाजवाब शेर हैं सभी ...

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