पीर
ढो रही पल-पल, धरती रोती है।
नीर
खो रही जल-जल, धरती रोती है।
डेरा
डाले,
ठाठ-बाठ
से,
बागों
में
हँसते
हैं जब मरु-थल,
धरती
रोती है।
भरी
बोतलों को,
जब
सूने नैन उठा
तकते
हैं घट निर्जल,
धरती
रोती है।
जाने
कब फिर गले मिलें, पर्वत-झरने
सोच-सोच
कर बेकल, धरती रोती है।
पूछा
करते, सून पोखरों से जब
वे
कहाँ
जाएँ हम शतदल, धरती रोती है।
जब-जब
नज़र आता उसको सावन में भी
अपना
निचुड़ा आँचल, धरती रोती है।
सोच-सोच
है चिंतातुर,
कैसे
सँवरे
नई
पौध का अब कल,
धरती
रोती है।
लौट
आए मुस्कान उसकी, यदि सब ढूँढें
अब
भी ‘कल्पना’ कुछ हल, धरती रोती है।
-कल्पना रामानी
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-04-2016) को "ज़िंदगी की किताब" (चर्चा अंक-2310) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाकई आने वाला कल बेटियों का ही है|
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