मृदु-मधुर
झोंके हवा के, कह गये, बेला खिले
धूप
सहते तन महक से तर हुए, बेला खिले
गंध
पुरवा में घुली ज्यों, झूम उठी हर-मन कली
सैर
को लाखों कदम बढ़ते दिखे, बेला खिले
फूल
चुनने चल पड़ी डलिया लिए मालिन मगन
है
उमंगित, आ गए दिन, मद भरे, बेला
खिले
रश्क
करती रात-रानी, मूँद लेती तब नयन
प्रात
में हैं जब बुलाते, प्यार से बेला खिले
दंग
रह जाते हैं गुल, चम्पा-चमेली या गुलाब
जब
धरा की गोद में वे, देखते बेला खिले
देख
दर्पण मुग्ध हो, शृंगार करती रूपसी
सोचती
है बाग में मेरे लिए बेला खिले
कामिनी
से कंत बोला, सेज कलियों से सजा
दिन
विरह के लद गए अब, सुन प्रिये! बेला खिले
अब
नहीं दिखते कहीं बहुमंज़िलों में ये सुमन
‘कल्पना’ मेरा ये मन कैसे कहे,
बेला खिले
-कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुंदर कविता । इस कविता ने बेला की खुशबू मुझ तक भी पहुंचा दी ।
बहुत सुंदर कविता । इस कविता ने बेला की खुशबू मुझ तक भी पहुंचा दी ।
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