बोल
उठा भू का तन प्यासा
घन
बरसो, जग-जीवन प्यासा
आस
लगी इस मानसून पर
रह
जाए न कृषक-मन प्यासा
कब
से नभ को ताक रहा है
कर
तरणी धर, बचपन प्यासा
किलकेंगे
प्यारे गुल कितने
अगर
न हो कोई गुलशन प्यासा
मंगल
वर्षा हो यदि वन में
तरसे
क्यों जीवांगन प्यासा
पिहू, कुहू औ’ मोर चकोरी
का
अब तक है नर्तन प्यासा
तैरा
करते धनिक साल भर
रह
जाता तन-निर्धन प्यासा
जाता
है हर मौसम में क्यों
या
अषाढ़ या सावन प्यासा
चाह
‘कल्पना’ सुनो बादलों
अब
की रहे कोई जीव, न प्यासा
-कल्पना रामानी
3 comments:
बहुत सुन्दर
हमारे तरफ तो बारिश शुरू हो गयी :)
धरा का कोना कोना भीगे तो बढ़िया
बारिश की बूंदों के इन्तेजार में सुन्दर गजल !!
सादर !!
बरसो रे मेघा---पानी दे,गुरधानी दे--
वो भी सुन रहा है,आशा रखिये.
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