सूरज
उगलता आग जो बागान से गया
जिस
गुल पे प्यार आया, वो पहचान से गया
खाती
हैं गर्मियाँ भला किस खेत का अनाज
फसलों
का दाना-दाना तो खलिहान से गया
बहते
पसीने को जो दिखाया, घड़ा-गिलास
देके
दुवाएँ लाखों, दिलो-जान से गया
दहते
दिनों ने ऐसी है दहशत परोस दी
दानी
कुआँ भी मौके पे जलदान से गया
क्या
करता प्यासा पाखी, उड़ा लू लपेटकर
पानी
तलाशने जो गया प्राण से गया
पहुँचा
वो देर से ज़रा, मित्रों के भोज में
था
जश्न शेष, जल न था, जलपान से गया
वैसाख
पूर्णिमा की कथा, ध्यान से सुनो
नदिया
नहाने जो भी गया, स्नान से गया
खुश
‘कल्पना’ तो हो रहा भू को निचोड़कर
इंसान, खुद ही
सृष्टि के वरदान से गया
-कल्पना रामानी
3 comments:
कल्पना रवानी जी आप ने क्या गजब की रचना की है आप को इस अभिव्यक्ति के लिए दिल से बधाई !
खुश ‘कल्पना’ तो हो रहा भू को निचोड़कर
इंसान, खुद ही सृष्टि के वरदान से गया
...वाह! बहुत खूब कही आपने
bhut hi sundar rachna\
sukriya
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