कल जंगलों का मातम, देखा क़रीब से।
पेड़ों को तोड़ते दम, देखा क़रीब से।
जो काल बनके आए, थे तो मनुष्य ही।
पर हाथ कितने निर्मम, देखा क़रीब से।
रह रह के ज़ालिमों की, चलती थीं आरियाँ।
बरबादियों का वो क्रम, देखा क़रीब से।
रोई थी डाली-डाली, काँपी थी हर दिशा।
फिर सिसकियों का आलम, देखा क़रीब से।
अपने ही राज से थे, जो बेदखल हुए।
उन चौपदों का वो गम, देखा करीब से।
यह हश्र देख वन का, मन टूटता गया।
दिन के उजाले में तम, देखा करीब से।
----कल्पना रामानी
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