रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Tuesday 24 December 2013

काश दिखलाए राह साल नया


चित्र से काव्य तक










इस कदर ख्वाब वे सजा बैठे। 
देश को दाँव पर लगा बैठे।

मानकर मिल्कियत महज अपनी
तख्त औ ताज को लजा बैठे।

मानवी मूल्य सब चढ़े सूली
फर्ज़ को कब्र में दबा बैठे।

दीप रौशन किए फ़कत अपने
आशियाँ औरों का जला बैठे।

आब आँखों की लुट चुकी उनकी
आबरू स्वत्व की लुटा बैठे।

डूबते खुद अगर मुनासिब था
बेरहम दुखियों को डुबा बैठे।

काश! दिखलाए राह साल नया
जो गए व्यर्थ ही गँवा बैठे।


-कल्पना रामानी

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