
इस कदर ख्वाब वे सजा बैठे।
देश को दाँव पर लगा बैठे।
मानकर मिल्कियत महज अपनी
तख्त औ ताज को लजा बैठे।
मानवी मूल्य सब चढ़े सूली
फर्ज़ को कब्र में दबा बैठे।
दीप रौशन किए फ़कत अपने
आशियाँ औरों का जला बैठे।
आब आँखों की लुट चुकी उनकी
आबरू स्वत्व की लुटा बैठे।
डूबते खुद अगर मुनासिब था
बेरहम दुखियों को डुबा बैठे।
काश! दिखलाए राह साल नया
जो गए व्यर्थ ही गँवा बैठे।
-कल्पना रामानी
1 comment:
उम्दा ग़ज़ल !
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