चलो हर कदम सँभल के, कहीं पग फिसल न जाए
जो मिला है आज अवसर, कहीं वो भी टल न जाए।
बड़े दिन के बाद आए, ज़रा देर पास बैठो
यूँ न छोड़ जाओ जब तक, मेरा मन सँभल न जाए।
जो वफा की खाते कसमें, नहीं उनका कुछ भरोसा
जिसे मन से अपना माना, वही मीत छल न जाए।
सुनो प्राणिश्रेष्ठ मानव, करो नेक कर्म भी कुछ
यूँ ही पाप बढ़ गया तो, ये धरा दहल न जाए।
ये खिली खिली सी धरती, हमें दे रही हवाला
रहे जल का संतुलन भी, कहीं पौध गल न जाए।
करो कैद गीत नगमें, कि गज़ल ने है बुलाया
है ये मंच शायरों का, ये समाँ निकल न जाए।
नहीं व्यर्थ बीत जाएँ, ये तुम्हारे दीद के पल
“न झुकाओ तुम निगाहें, कहीं रात ढल न जाए”
- कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
बड़े दिन के बाद आए, ज़रा देर पास बैठो,
यूँ न छोड़ जाओ जब तक, मेरा मन सँभल न जाए।
जो वफा की खाते कसमें, नहीं उनका कुछ भरोसा,
जिसे मन से अपना माना, वही मीत छल न जाए।
सिर्फ इन दो मिसरों के बाकी सब मेरे हिसाब से उत्क्रिस्ट है.
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