रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Friday, 6 September 2013

चलो हर कदम सँभलके//गज़ल//















चलो हर कदम सँभल के, कहीं पग फिसल न जाए
जो मिला है आज अवसर, कहीं वो भी टल न जाए।
 
बड़े दिन के बाद आए, ज़रा देर पास बैठो
यूँ न छोड़ जाओ जब तक, मेरा मन सँभल न जाए।
 
जो वफा की खाते कसमें, नहीं उनका कुछ भरोसा
जिसे मन से अपना माना, वही मीत छल न जाए।
 
सुनो प्राणिश्रेष्ठ मानव, करो नेक कर्म भी कुछ
यूँ ही पाप बढ़ गया तो, ये धरा दहल न जाए।
 
ये खिली खिली सी धरती, हमें दे रही हवाला
रहे जल का संतुलन भी, कहीं पौध गल न जाए।
 
करो कैद गीत नगमें, कि गज़ल ने है बुलाया
है ये मंच शायरों का, ये समाँ निकल न जाए।  
 
नहीं व्यर्थ बीत जाएँ, ये तुम्हारे दीद के पल
न झुकाओ तुम निगाहें, कहीं रात ढल न जाए 
  

- कल्पना रामानी

2 comments:

Meena Pathak said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल

ashu said...

बड़े दिन के बाद आए, ज़रा देर पास बैठो,
यूँ न छोड़ जाओ जब तक, मेरा मन सँभल न जाए।

जो वफा की खाते कसमें, नहीं उनका कुछ भरोसा,
जिसे मन से अपना माना, वही मीत छल न जाए।


सिर्फ इन दो मिसरों के बाकी सब मेरे हिसाब से उत्क्रिस्ट है.

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