चाह
में जिसकी चले थे,
उस खुशी को खो चुके।
दिल
शहर को सौंपकर,
ज़िंदादिली को खो चुके।
अब नहीं होती सुबह,
मुस्कान अभिवादन भरी,
जड़
हुए जज़्बात, तन की ताज़गी को खो चुके।
घर के घेरे तोड़ आए, चुन लिए
हमने मकान,
चार
दीवारों में घिर,
कुदरत परी को खो चुके।
दे
रहे खुद को तसल्ली,
देख नित नकली गुलाब,
खिड़कियों
को खोलती गुलदावदी को खो चुके।
कल
की चिंता ओढ़ सोते,
करवटों की सेज पर,
चैन
की चादर उढ़ाती,
यामिनी को खो चुके।
चाँद
हमको ढूँढता है,
अब छतों पर रात भर,
हम
अमा में डूब,
छत की चाँदनी को खो चुके।
गाँव
को यदि हम बनाते,
एक प्यारा सा शहर,
साथ
रहती वो सदा,
हम जिस गली को खो चुके।
-कल्पना रामानी
3 comments:
achchi gajal hai
बहुत सुंदर गजल.
नई पोस्ट : अपनों से लड़ना पड़ा मुझे
sundar gajal didi
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