रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Thursday 26 February 2015

मीत जागते रहो

वसुंधरा करे पुकार, मीत जागते रहो   
कि लौट जाए ना बहार, मीत जागते रहो 

उमड़ रहे हैं उपवनों में, कंटकों के काफिले
करें न कलियों पर प्रहार, मीत जागते रहो 

समंदरों की सैर को सँवर रहीं सुनामियाँ
निगल न जाए तट को ज्वार, मीत जागते रहो

छलों-बलों को छोड़के, रखो दिलों को जोड़के                 
न टूट जाएँ नेह-तार, मीत जागते रहो 

गला ही घोंटते रहे, जो वोट करके वायदे
करें न चोट बार-बार, मीत जागते रहो

चलो न छाँह छीनकर, छुड़ाके बाँह गाँव की
न होगा कोई गमगुसार, मीत जागते रहो

तरक्कियों के दर कई, अखंड हो जो एकता
न खंड-खंड हों विचार, मीत जागते रहो

बनो न खुद खुदा कि रूठ जाए रब-रसूल ही
न बंद हों दुआ के द्वार, मीत जागते रहो

प्रलोभ-ज्वाल देश को, न लील जाए कल्पना
जगो, उठो, तजो खुमार, मीत जागते रहो

-कल्पना रामानी 

1 comment:

Kailash Sharma said...

बहुत ही प्रेरक और सार्थक अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर

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