
भूखों
को रिझाते वे, रोटी की मुनादी से।
प्यासों
को पिलाते हैं, वादों की सुराही से।
ख्वाबों
में गरम गुदड़ी, जिनको न हुई हासिल
ख्वाब
उनके सजाते वे, रेशम की रजाई से।
कुहरा
हो या पाला हो, उनकी हैं सुखद सेजें
फुटपाथ
इन्हें ढँकते, चिथड़ों की चटाई से।
होते
हैं सुखद सर्वे सुखियों के गगन में तब
दो
हाथ दुखी करते, जब बाढ़ सुनामी से।
फसलें
तो उगाते ये, दानों पे दखल उनका
मौत
इनसे गले मिलकर, फुसलाती है फाँसी से।
मरते
हैं या जीते ये, खुदगर्ज़ खबर क्यों लें?
उनको
तो गरज अपनी, खबरों की छपाई से।
--कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुन्दर गजल।
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