दिन लुभाने आ गए हैं, मौसमी त्यौहार के।
ऋतु बसंती, संग फागुन, रंग की बौछार के।
आई होली, हँसके बोली, भूल सब गम चल पड़ो
छेड़ दो पिचकारियों से, अब तराने प्यार के।
रंग के मेले सजे हैं, महफिलें हैं भंग की
भा रहे मन को नज़ारे, झूमते संसार के।
द्वार पर हैं अल्पनाएँ, खास हैं मिष्ठान्न भी
पुष्प भी शामिल हुए, हर बाग वन की डार के।
पायलें पाँवों से लिपटीं, चूड़ियाँ हाथों चढ़ीं
मादलों की थाप में सुर मिल गए झंकार के।
भूलकर हर द्वेष, दुश्मन भी बने हैं मित्र सब
हो रहे उपकृत हृदय से, प्रकृति के उपहार के।
हर बदलता रूप कुदरत का सिखाता है यही
भूल जाएँ भाव सारे, क्रूर कटु व्यवहार के।
- कल्पना रामानी
1 comment:
Suhanaaa...
Post a Comment