
पहचान क्या है मेरी, हर शाम पूछती हूँ।
जो हमसफर थे कल तक, मुँह आज सबने मोड़ा।
हर मोड़ रुक के रस्तों, से मुकाम पूछती हूँ।
निर्दोष हूँ मैं फिर भी, जीने की सज़ा क्यों है?
क्यों है वजूद मेरा, क्या काम, पूछती हूँ।
अपनों की भीड़ में हूँ, मैं आज भी अकेली
परछाइयों से सारे, पैगाम पूछती हूँ।
हैरत है हादसों में, हर बार बच गई मैं
क्या होगा 'कल्पना' अब, अंजाम पूछती हूँ।
-कल्पना रामानी
1 comment:
कल्पना रामानी जी आप की रचना दिल को छू जाती है बधाई !
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