जब
क़लम को थामती, मेरी गज़ल है।
खूब
कहना जानती, मेरी गज़ल है।
पूर
होता जब गले तक सब्र-सागर
तब
किनारा लाँघती, मेरी गज़ल है।
दीन-दुखियों, बेबसों का हाथ
गहकर
हक़
में उनके बोलती, मेरी गज़ल है।
अंधविश्वासों
की परतों को परे कर
रूढ़ियों
को रौंदती, मेरी गज़ल है।
नफ़रतों
की बाढ़ से बिफरी नदी पर
नेह
का पुल बाँधती, मेरी गज़ल है।
हौसले
हारे जनों के हिय जगाकर
दुख
के कंटक काटती, मेरी गज़ल है।
देशद्रोही, ठग लुटेरों की
हरिक नस
‘कल्पना’ पहचानती, मेरी गज़ल है।
-कल्पना रामानी
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