जिसको चाहा था तुम वही हो क्या?
मेरी हमराह, ज़िंदगी हो क्या?
कल तो हिरनी बनी उछलती रही,
क्या हुआ आज, थक गई हो क्या?
ऐ बहारों की बोलती बुलबुल,
क्यों हुई मौन, बंदिनी हो क्या?
ढूँढती हूँ तुम्हें उजालों में,
तुम अँधेरों से जा मिली हो क्या?
महफिलें अब नहीं सुहातीं तुम्हें?
कोई गुज़री हुई सदी हो क्या?
क्यों मेरे हौसले घटाती हो,
मेरी सरकार, दिल-जली हो क्या?
प्यार से ही तो थी मिली तुमसे,
खुश नहीं फिर भी, सिरफिरी हो क्या?
थी नदी चंचला उफनती हुई,
सागरों से भला डरी हो क्या?
सुन रही हो, कि जो कहा मैंने?
कोई फरियाद अनसुनी हो क्या?
“कल्पना” मैं कसूरवार नहीं,
रूठकर जा रही सखी हो क्या?
------कल्पना रामानी
2 comments:
ढूँढती हूँ तुम्हें उजालों में,
तुम अँधेरों से जा मिली हो क्या?
...वाह...बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...सभी अशआर दिल को छूते हुए...
सभी अश'आर बेहर सुन्दर और लाज़वाब आदरणीय। क्या ख़ूब प्रश्नवाचक में अभिव्यक्ति बिखेरी है आपने बहुत बहुत खूब
दिली मुबारक़बाद
बहुत बधाई
एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''भूल कर भी, अब तुम यकीं, नहीं करना''
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