रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Friday, 14 June 2013

गंगा नहाने आ गए//गज़ल//




 



 



पाप गठरी सिर धरे, गंगा नहाने आ गए।
जन्म भर का मैल, सलिला में मिलाने आ गए।
 
ये छिपे रुस्तम कहाते, देश के हैं सभ्य जन
पीढ़ियों को तारने, माँ को मनाने आ गए।
 
मन चढ़ी कालिख, वसन तन धर धवल बगुले भगत
मंदिरों में राम धुन के गीत गाने आ गए।
 
रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर,
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।
 
चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।
 
लूटकर धन धान्य घट, भरते रहे ताज़िन्दगी
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।
 
इन परम पाखंडियों को, दो सुमत भागीरथी
दोष अर्पण कर तुझे, जो मोक्ष पाने आ गए।

- कल्पना रामानी

3 comments:

Kailash Sharma said...

रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर,
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।

....कटु सत्य...बहुत सटीक और प्रभावी रचना...

कविता रावत said...

इन परम पाखंडियों को, दो सुमत भागीरथी,
दोष अर्पण कर तुझे, जो मोक्ष पाने आ गए। ..
..ऐसे लोग मोक्ष के नाम पर कभी नहीं मरते ...
आज जब तांडव मचा है तब कहाँ गयी वह शक्ति भक्ति जो लोगों को दिखाते फिरते है ऐसे लोग ...
सटीक प्रस्तुति

कालीपद "प्रसाद" said...

लूटकर धन धान्य घट, भरते रहे ताज़िन्दगी,
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।

इन परम पाखंडियों को, दो सुमत भागीरथी,
दोष अर्पण कर तुझे, जो मोक्ष पाने आ गए।

आज के गेरुआ वस्त्रधारियों और बगुला भगतों पर सटीक रचना
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