
ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!
भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े, बने पिंजड़े
पिंजड़ों में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!
और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़
मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।
शहर में आकर मचाते, हैं अकारण भीड़
यूँ बढ़ाए गाँव ने, व्यवधान भी तो हैं!
क्यों नहीं हक माँगते, शासन से बढ़कर ये?
जानकर बनते रहे, नादान भी तो हैं!
हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते
श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!
माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?
मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।
कोसते केवल शहर को, क्यों भला सब लोग?
ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!
- कल्पना रामानी
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